Tuesday, September 14, 2010

‘गाँधीवादी समाजवाद’

अयोध्या मसले पर जनमाध्यमों में आ रही सांप्रदायिक खबरों को राकने के
जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी (जेयूसीएस) और मीडिया स्टडीज सेंटर
के अभियान के तहत हम फैजाबाद से निकलने वाले जनमोर्चा के पत्रकार रहे
कृष्ण प्रताप सिंह के लेख को प्रसारित कर रहे हैं। यह लेख उन पत्रकार
साथियों के लिए है जो उस दौरान अयोध्या में मीडिया की भूमिका को नहीं समझ
पाए या फिर उसके बाद पत्रकारिता की दुनिया में आए।

कृष्ण प्रताप सिंह -

यह एक संयोग (कायदे से दुर्योग) ही था कि उधर विश्वहिन्दू परिषद ने
अयोध्या को रणक्षेत्रा में बदलने के लिए दाँत किटकिटाए और इधर मेरे भीतर
सोये नन्हं पत्राकार ने आँखें मलनी शुरू कीं. जिस फैजाबाद जिले में
अयोध्या स्थित है उसके पूर्वांचल के एक अत्यन्त पिछड़े हुए गाँव से बेहद
गरीब बाप के दिये नैतिक व सामाजिक मूल्यों की गठरी सिर पर धरकर यह
पत्राकार चला तो उसका सामना विश्वहिन्दू परिषद द्वारा दाऊ दयाल खन्ना के
नेतृत्त्व में सीतामढ़ी से निकाली जा रही रथयात्रा से हुआ ‘आगे बढ़ो जोर से
बोलो, जन्म भूमि का ताला खोलो’ जैसे नारे लगाती आती यह यात्रा अन्ततः, आम
लोगों द्वारा अनसुनी के बीच, तत्कालीन प्रधानमंत्राी श्रीमती इन्दिरा
गाँधी की हत्या से उफना उठे सहानुभूति के समन्दर में डूब गयी थी. और
डूबती भी क्यों नहीं, श्रीमती गाँधी ने अपने प्रधानमंत्री रहते इसकी बाबत
कोई टिप्पणी तक नहीं की. उन्हें मालूम था कि उनकी टिप्पणी से व्यर्थ ही
इस यात्रा का भाव बढ़ जायेगा. संघ परिवार इससे अति की हदतक निराश हुआ.

फिर तो इस परिवार की राजनीतिक फ्रंट भाजपा भी ‘गाँधीवादी समाजवाद’ के घाट
पर आत्महत्या करते-करते बची. लेकिन राजीव गाँधी के प्रधानमंत्राी काल में
इन दोनों ने ‘नया जीवन’ प्राप्त करने के लिए नये स्वांगों की शरण ली तो
असुरक्षा के शिकार प्रधानमंत्राी और उनके दून स्कूल के सलाहकार ऐसे
आतंकित हो गये कि उनको इन्हें मात देने का सिर्फ एक तरीका दिखा. वह यह कि
अपनी ओर से ताले खोलने का इंतजाम करके तथाकथित हिन्दू कार्ड छीनकर इन्हें
‘निरस्त्रा’ कर दिया जाये. फिर क्या था, मुख्यमंत्राी वीर बहादुर सिंह ने
इसके लिए अपनी सेवाएं प्रस्तुत कर दीं और इस बात को सिरे से भुला दिया
गया कि यों ताले खुलना विवाद का अन्त नहीं, नये सिरे से उनका प्रारम्भ
होगा. फिर तो उनमें से ऐसे-ऐसे जिन्न निकलने शुरू होंगे जिन्हें किसी भी
बोतल में बन्द करना सम्भव नहीं होगा.

विहिप और भाजपा को तो यों भी ताले खुलने से तुष्ट नहीं होना था. इसलिए
इन्होंने वही किया जो उन्हें करना चाहिए था. जैसे-जैसे राजीव गाँधी को
मिले जनादेश की चमक फीकी पड़ती गयी और वे राजनीतिक चक्रव्यूहों में घिरते
गये, ये रामजन्मभूमि पर भव्य मन्दिर के तथाकथित निर्माण के लिए अपनी
कवायदें तेज करती गयीं. यहाँ रुककर ‘रामजन्मभूमि’ का अयोध्या-फैजाबाद में
प्रचलित अर्थ जान लेना चाहिएः बाबरी नाम से जानी जानेवाली कई सौ साल
पुरानी एक मस्जिद, जिसमें (पुलिस में दर्ज रिर्पाट के अनुसार) 22/23
दिसम्बर 1949 की रात फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधीश के के. नैयर और हिन्दू
सम्प्रदायिकतावादियों की मिलीभगत से जबर्दस्ती मूर्तियाँ स्थापित कर दी
गयी थीं और कह दिया गया था कि भगवान राम का प्राकट्य हो गया है. फिर यह
तर्क भी दिया जाने लगा था कि ऐसा करना किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है
क्योंकि यह मस्जिद एक वक्त मन्दिर को तोड़कर निर्मित की गयी और गुलामी की
प्रतीक थी. बिना इस अर्थ को समझे पत्राकारों के वे विचलन दिखेंगे ही नहीं
जो ऐसे तर्कशास्त्रिायों की संगति ने उनमें पैदा किये. इस अर्थ की कसौटी
पर तो उनमें विचलन ही विचलन दिखायी देते हैं.

किस्सा कोताह, 1986 में ताले खुले और 1989 में राजीव गाँधी ने फिर
हिन्दूकार्ड छीनने की कोशिश में ‘वहीं’ यानी गुलामी की प्रतीक उसी मस्जिद
की जगह पर मन्दिर निर्माण के लिए शिलान्यास करा दिया. उनकी और
मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की समझ यह बनी कि शिलान्यास से हिन्दू
फिर खुश होकर कांग्रेस के खेमे में आ जायेंगे. फिर ‘निर्माण’ रोक देने से
मुसलमान भी तुष्ट ही रहेंगे और कांग्रेस के दोनों हाथों में लड्डू हो
जायेंगे. तब शाहबानो और बोफोर्स मामलों में फसंत के बावजूद चुनाव वैतरणी
पार होने में दिक्कत नहीं होगी. मगर हुआ इसका ठीक उलटा. विहिप भाजपा ने
शिलान्यास को अपनी बढ़ती हुई ताकत से डरकर सरकार द्वारा मोर्चा छोड़ देने
के रूम में देखा और हर्षातिरेक में नये-नये दाँव पेचों की झड़ी लगा दी.
फिर तो लोकसभा चुनाव में राजीवगाँधी का अयोध्या आकर प्रचार शुरू करने व
रामराज्य लाने का वादा भी कुछ काम नहीं आया. 1989 के आम चुनाव में
कांग्रेस फैजाबाद लोकसभा सीट भी नहीं जीत सकी. आगे चलकर विश्वनाथ प्रताप
सिंह, मुलायम सिंह यादव और पी.वी. नरसिंहराव/ कल्याण सिंह के राज में
1990-92 में कैसे ‘अयोध्या खून से नहायी’, ‘सरयू का पानी लाल हुआ’ और
बाबरी मस्जिद इतिहास में समायी, यह अभी ताजा-ताजा इतिहास है.

हिन्दू कार्ड की छीना झपटी वाले इस इतिहास को वर्तमान के रूप में झेलना
और पत्राकारीय जीवन का अब तक का सबसे त्रासद अनुभव था. मोहभंग के कगार तक
ले जाने वाला. हालांकि इसके लिए मेरी नासमझी ही ज्यादा जिम्मेदार थी
जिसके झाँसे में आकर मैं मान बैठा था कि पत्राकार होना सचमुच वाच डाग आफ
पीपुल होना है. सच को सच की तरह समझने, कहने और पेश करने का हिमायती
होना, मोह लोभ राग-द्वेष और छल प्रपंच से दूर होना, देश व दुनिया की
बेहतरी के लिए बेड रूम से लेकर बाथरूम तक में सचेत रहना और जीवन में
नैतिक, व प्रगतिशील मूल्यों का आदती होना भी. मुझे तो यह सोचने मे भी
असुविधा होती थी कि कोई पत्राकार लोगों को स्थितियों और घटनाओं की
यथातथ्य जानकारी देने के बजाय किसी संकीर्ण साम्प्रदायिक या धार्मिक जमात
के हित में उन्हें गढ़ने व उनके उपकरण के रूप में काम करने की हद तक जा
सकता है. मुझे तो पत्राकारिता की दुनिया भली ही सिर्फ इसलिए लगती थी कि
यहाँ रहकर मैं जीवन के तमाम विद्रूपों का सार्थक प्रतिवाद कर सकता था.
पूछ सकता था कि दुनिया इतनी बेदिल है तो क्यों है, लाख कोशिशें करने पर
भी सँवरती क्यों नहीं है और कौन लोग हैं जो उसकी टेढ़ी चाल को सीधी नहीं
होने दे रहे हैं?

इसलिए विहिप भाजपा की कवायदों में धार्मिक साम्प्रदायिक, व्यावसायिक और
दूसरे न्यस्त स्वार्थों से पीड़ित पत्राकारों को लिप्त होते, उनके हिस्से
का आधा-अधूरा और असत्य से भी ज्यादा खतरनाक ‘सच’ बोलते-लिखते पाता तो
जैसे खुद से ही (उनसे पूछते का कोई अधिकार ही कहां था मेरे पास) पूछने
लगता: भारत जैसे बहुलवादी देश में कुछ लोग धर्म का नाम लेकर युयुत्सु
जमावड़े खड़े करने और लोकतंत्रा में प्राप्त सहूलियतों का इस्तेमाल उसे ही
ढहाने, बदनाम करने में करने लगे हों, न संविधान को बक्श रहे हों न ही
उसके मूल्यों को, दुर्भावनाओं को भावनाएं और असहिष्णुता को जीवन मूल्य
बनाकर पेश कर रहे हों तो क्या पत्राकारों को उनके प्रति सारी सीमाएं
तोड़कर सहिष्णु होना, उनकी पीठ ठोंकना, समर्थन व प्रोत्साहन करना चाहिए?
क्या ऐसा करना खुद पत्राकारों का दुर्भावना के खेल में शामिल होना नहीं
है?

दुख की बात है कि प्रतिरोध की शानदार परम्पराओं वाली हिन्दी पत्राकारिता
के अनेक ‘वारिस अयोध्या में दुर्भावनाओं के खेल में लगातार शामिल रहे
हैं? सो भी बिना किसी अपराधबोध के. उनकी ‘मुख्य धारा’ तो शुरुआती दिनांे
से ही इस आन्दोलन का अपने व्यावसायिक हितों के लिए इस्तेमाल करती और उसके
हाथों खुद भी इस्तेमाल होती रही है. 1990-92 में तो इन दोनों की परस्पर
निर्भरता इतनी बढ़ गयी थी कि लोग हिन्दी पत्राकारिता हिन्दू पत्राकारिता
कहने लगे थे. भय, भ्रम, दहशत, अफवाहों और अविश्वासों के प्रसार में अपने
‘हिन्दू भाइयों’ को कदम से कदम मिलाकर चलने वाले हिन्दू पत्राकारिता के
अलमबरदार चार अखबारोंµआज अमर उजाला, दैनिक जागरण और स्वतंत्रा भारत-की तो
भारतीय प्रेस परिषद ने इसके लिए कड़े शब्दों में निन्दा भी की मगर उन्हें
इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. ऐसा नहीं है कि प्रतिरोध के स्वर थे ही नहीं?
मगर वे नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गये थे. एक वाकया याद आता
है: 1990 में विश्वनाथ प्रताप मुलायम के राज में दो नवम्बर को अयोध्या
खून से नहायी (जैसा कि हिन्दू पत्राकारिता ने लिखा) तो मैं फैजाबाद से ही
प्रकाशित दैनिक जनमोर्चा के सम्पादकीय विभाग में कार्यरत था जिसके चैक,
फैजाबाद स्थित कार्यालय में ही संवाद समितियों ने अपने कार्यालय बना रखे
थे. एक संवाद समिति ने कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग होते ही मृतकों की
संख्या बढ़ा चढ़ाकर देनी शुरू कर दी तो दूसरी के मुख्यालय में ‘दौड़ में
पिछड़ जाने’ की आशंका व्याप्त हो गयी. वहाँ से उसके संवाददता को फोन पर
बुलाकर कैफियत तलब की गयी तो उसने चुटकी लेते हुए कहा ‘देखिए, फायरिंग
में जितने कारसेवक मारे गये हैं, उनकी ठीक-ठीक संख्या मैंने लिख दी है.
बाकी की को उस संवाद समिति ने कब और कैसे मार डाला, आप को भी पता है.
लेकिन कहें तो इसका मैं फिर से पता लगाऊँ. वैसे मृतकों की संख्या बढ़ाना
चाहते हैं तो प्लीज, एक काम कीजिए. बन्दूकें वगैरह भिजवा दीजिए. कुछ और
को मारकर मैं यह संख्या प्रतिद्वन्द्वी संवाद समिति से भी आगे कर दूँ.
लेकिन कार सेवक पाँच भरें और मैं पन्द्रह लिख दूँ, यह मुझसे नहीं होने
वाला’

दूसरी ओर से बिना कोई जवाब दिये फोन काट दिया गया. लेकिन आत्मसंयम का यह
बाँध ज्यादा देर तक नहीं टिका. मारे गये कारसेवकों की संख्या को बढ़ा
चढ़ाकर छापने की प्रतिद्वन्द्विता में पत्राकारों व अखबारों ने क्या-क्या
गुल खिलाये, इसे आज प्रायः सभी जानते हैं. आमलोगों में परम्परा से
विश्वास चला आता था कि अखबारों में आमतौर पर पन्द्रह मौतें हों तो पाँच
ही छपती हैं. कारसेवकों पर पुलिस फायरिंग ने इस भोले विश्वास को भी तोड़कर
रख दिया. पत्राकार खुद मौतें पैदा करने में लग गये. सच्ची नहीं तो झूठी
ही सही.

लखनऊ से प्रकाशित एक दैनिक ने तो, जो अब खुद को विश्व का सबसे ज्यादा पढ़ा
जाने वाला अखबार बताता है, गजब ही कर दिया. दो नवम्बर को अपराह्न उसने
अपने पाठकों के लिए जो स्पेशल सल्पिमेन्ट छापा उसमें मृत कारसेवकों की
संख्या कई गुनी कर दी और लाउडस्पीकरों से सजे वाहनों में लादकर चिल्ला
चिल्लाकर बेचा. मगर सुबह उसका जो संस्करण अयोध्या फैजाबाद आया उसमें मृतक
संख्या घटकर बत्तीस रह गयी थी. जानकार लोग मजाक में पूछते थे कि क्या शेष
मृतक रात को जिन्दा हो गये? बेचारे अखबार के पास यह तर्क भी नहीं था कि
अयोध्या बहुत दूर थी और हड़बड़ी में उसे गलत सूचनाओं पर भरोसा कर लेना पड़ा.
गोरखपुर से छप रहे एक मसाला व्यवसायी के दैनिक ने भी कुछ कम गजब नहीं
ढाया. उपसम्पादकों ने पहले पेज की फिल्म बनवायी तो पहली हेडिंग में 150
कारसेवकों के मारे जाने की खबर थी. सम्पादक जी ने उसमें एक और शून्य
बढ़वाकर 1500 करा दिया ताकि सबसे मसालेदार दिखें. वाराणसी के एक दैनिक से
इन पंक्तियों के लेखक की बात हुई. पूछा गयाµसच बताइए, कितने मरे होंगे.
मैंने बतायाµ30 अक्टूबर और दो नवम्बर दोनों दिनों के हड़बोंग में सोलह
जानें गयी हैं और यह बहुत दुखदायी है. उधर से कहा गया छोड़िए भी. हम तो
छाप रहे हैं सरयू लाल हो गयी खून से हजारों मरे. नहीं मरे तो हमारी बला
से! मैं फोन करने वाले को यह समझाने में विफल रहा कि सरकार को ठीक से
कटघरे में खड़ी करने के लिए फायरिंग में हुई जनहानि की वस्तुनिष्ठता व
सच्ची खबरें ज्यादा जरूरी हैं अफवाहें नहीं.

मारे गये कारसेवकों की वास्तविक संख्या का पता करने का फर्ज तो जैसे
पत्राकारों को याद ही नहीं रह गया था. कोई पूछेµकितने मरे? तो वे
प्रतिप्रश्न करते थेµहिन्दुओं की तरह जानना चाहते हैं कि मुसलमानों की या
फिर... और जो लोग ‘हिन्दुओं की तरह’ जानना चाहते थे, उनके लिए पत्राकारों
के पास ‘अतिरिक्त जानकारीयाँ भी थीं.µ ‘पुलिस ही गोलियाँ चलाती तो इतने
कारसेवक थोड़े मरते! पुलिस तो अन्दर-अन्दर अपने साथ ही थी. वह तो पुलिस की
वर्दी में मुन्नन खाँ के आदमियों ने फायरिंग की और जमकर की. फिर लाशों को
ट्रकों में भरकर सरयू में बहा दिया. मुसलमान पुलिस अफसरों व जवानों ने
इसमें उनका सहयोग किया.’ मुन्नन खाँ उन दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश में
समाजवादियों के मुलायम गुट के उभरते हुए नेता थे और उनकी बंग छवि के नाते
विहिप-भाजपा ने उनमें भी एक ‘मुस्लिम खलनायक’ ढूँढ़ निकाला था और हिन्दू
पत्राकार इसमें जी-जान लगाकर सहयोग कर रहे थे. उनको इस सच्चाई से कोई
मतलब नहीं था कि अयोध्या में उस दिन किसी मुस्लिम पुलिस अधिकारी की
तैनाती ही नहीं थी. फिर वह मुन्नन खाँ के कथित आदमियों को सहयोग क्या
करता? लेकिन कहा जाता है न कि झूठ के पाँव नहीं होते लेकिन पंख होते हैं.
इसीलिए तो कारसेवा समिति के प्रवक्ता वामदेव कह रहे थे कि दो नवम्बर की
फायरिंग में उनके बारह कारसेवक मारे गये हंै. और अखबार... कैसा विडम्बना
थी कि आन्दोलन का नेतृत्व करनेवाली संस्था अपनी जनहानि को ‘कम करके’ बता
रही थी. अखबारों की ‘सच्चाई’ पर भरोसा करने पर यही निष्कर्ष तो निकलेगा.
कोई चाहे तो यह निष्कर्ष भी निकाल ही सकता है कि ‘हिन्दू’ मानसिकता वाले
जिस पुलिस प्रशासन ने प्रदेश सरकार द्वारा आरोपित यातायात प्रतिबन्धों को
धता बताकर लाखों कारसेवकों को 30 अक्टूबर को शौर्य प्रदर्शन के लिए
अयोध्या में ‘प्रगट’ हो जाने दिया था, उसी ने मौका मिलते ही उन्हें
बेरहमी से भून डाला. पुलिस है न, उसने भून देने के लिए ही उन्हें वहाँ
इकट्ठा होने दिया था. लेकिन तब भारत तिब्बत सीमा पुलिस का ‘वह’ अधिकारी
सिर्फ इतनी-बात के लिए अखबारों के स्थानीय कार्यालयों का चक्कर क्यों काट
रहा था कि कहीं दो लाइन छप जाए कि उसकी कम्पनी गोली चलाने वालों में
शामिल नहीं थी, जिससे वह ‘लांछित’ होने से बच सके. पता नहीं वह बचा या
नहीं लेकिन ‘जो भी सच बोलेंगे मारे जायेंगे’ की इस स्थिति की सबसे ज्यादा
कीमत एकमात्रा दैनिक जनमोर्चा ने ही चुकायी. उसने मारे गये कारसवकों की
वास्तविक संख्या छाप दी. तो उग्र कारसेवक इतने नाराज हुए कि सम्पादक और
कार्यालय को निशाना बनाने के फेर में रहने लगे. इससे और तो और कई
‘हिन्दू’ पत्राकार भी खुश थे. वे कहते थे, ‘ये साले (जनमोर्चा वाले) पिट
जाएं तो ठीक ही है. हम सबको झूठा सिद्ध करने में लगे हैं. मुश्किल है कि
ये सब भी ससुरे हिन्दू ही हैं. वरना...और सारे प्रतिबन्धों को धता बताकर,
यथास्थिति बनाये रखने के अदालती आदेश के विरुद्ध, कारसेवा करने लाखों
कारसेवक उस दिन अचानक अयोध्या की धरती फोड़कर निकल आए तो इस ‘चमत्कार’ में
भी हिन्दू पत्राकारों का कुछ कम चमत्कार नहीं था. पत्राकार के तौर पर
मिले व्यक्तिगत और वाहन पासों को मनमाने तौर पर दुरुपयोग के लिए इन्होंने
कारसेवकों को सौंप दिया. कड़ी चैकसी के बीच जब अशोक सिंघल का अयोध्या
पहुँचना एक तरह से असम्भव हो गया तो दैनिक ‘स्वतंत्रा भारत’ (लखनऊ) के
सम्पादक राजनाथ सिंह उन्हें ‘प्रेस’ लिखी अपनी कार में छिपाकर ले आये. उन
दिनों पत्राकारों में ‘कारसेवक पत्राकारों’ की एक नयी श्रेणी ‘विकसित’ हो
गयी थी जो कारसवेक पहले थी और पत्राकार बाद में. ‘जनसत्ता’ के सलाहकार
सम्पादक प्रभाष जोशी तो बहुत दिनों तक अपने लखनऊ संवाददाता के लिए
‘जनसत्ता’ के ही अपने ‘कागदकारे’ में ‘कारसेवक पत्राकार’ शब्द इस्तेमाल
करते और इसकी पुष्टि करते रहे. जैसे कारसेवक पत्राकार थे वैसे ही कारसेवक
अफसर व कर्मचारी भी और ‘रामविरोधी’ पत्राकारों व नेताओं से निपटने को
लेकर इनमें अभूत पूर्व तालमेल था. बहुत कम लोगों को मालूम है कि अयोध्या
में बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ रखी जाने की तिथि पर जो ‘प्राकट्योत्सव’
होता है, उसकी बुनियाद भी स्थानीय दैनिक ‘नये लोग’ के दो सम्पादकोंµ
राधेश्याम शुक्ल और दिनेश माहेश्वरी ने रखी थी. राधेश्याम शुक्ल अब
हैदराबाद से प्रकाशित ‘स्वतंत्रा वार्ता’ दैनिक के सम्पादक हैं. ज्ञातव्य
है कि मन्दिर निर्माण के आन्दोलन की बुनियाद मोटे तौर पर यह हिन्दू
पत्राकारों द्वारा प्रायोजित प्राकट्योत्सव ही बना था.

लेकिन यह समझना नादानी के सिवाय कुछ नहीं होगा कि कारसेवक पत्राकारों की
जमात अचानक 90-92 में कहीं से आकर ठसक के साथ बैठ गयी और अपना ‘दायित्व’
निभाने लगी थी. कहते हैं कि 1977 में लालकृष्ण आडवाणी सूचना और
प्रधानमंत्राी बने तो उन्होंने अपने दैनिक कृपापात्रों को विभिन्न
अखबारों में उपकृत करा दिया था ताकि वक्त जरूरत वे काम आ सकें. बाबरी
मस्जिद के पक्षकारों को तो हमेशा ही शिकायत रही है कि विहिप से दोस्ताना
रवैया रखने वाले हिन्दी मीडिया ने भी उनको इन्साफ मिलने की राह रोक रखी
है. वे कहते हैं: (1) इस मामले में हिन्दी मीडिया ने पीड़ित पक्ष से
सहानुभूति की अपनी परम्परा 22/23 दिंसम्बर 1949 से ही छोड़ रखी है जब
मस्जिद में जबरन मूर्तियाँ रखी गयीं. पीड़ित हम हैं और यह मीडिया पीड़कों
के साथ है. (2) 1984 में विहिप ने सरकार पर मस्जिद के ताले खोलने का दबाव
बढ़ाने के लिए रथयात्रा शुरू की तो इस मीडिया ने उसे किसी जनाधिकार के लिए
‘जेनुइन’ यात्रा जैसा दर्जा दिया. हर चंन्द कोशिश की कि लोगों में यह बात
न जाए कि यह एक द्विपक्षी मामले को जो अदालत में विचारधीन है, और गैर
वाजिब तरीके से प्रभावित करने की कोशिश है. (3) एक फरवरी 1986 को ताले
खोले गये तो भी इस मीडिया ने यह कहकर भ्रम फैलाया कि राम जन्मभूमि में
लगे ताले खोल दिये गये. ताले तो विवादित मस्जिद में लगाये गये थे. जिसको
मीडिया बाद में शरारत ‘विवादित रामजन्मभूमिµ बाबरी मस्जिद’ कहने लगा और
अब सीधे ‘जन्मभूमि’ ही कहता है. (4) ताले खोलने के पीछे की साजिश कभी भी
इस मीडिया की दिलचस्पी का विषय नहीं रही. ताले दूसरे पक्ष को सुने बिना
हाईकोर्ट के आदेश की अवज्ञा करके खोले गये, मगर यह तथ्य मीडिया ने या तो
बताया नहीं या अनुकूलित करके बताया. (5) भूमि के एक टुकड़े पर स्वामित्व
के एक छोटे से मामले को विहिप ने धार्मिक आस्था के टकराव का मामला बनाना
शुरू किया तो भी इस मीडिया ने तनिक भी चिन्तित होने की जरूरत नहीं समझी.
(6) 1989 में विवादित भूमि पर राममन्दिर के शिलान्यास और 1990 में
कारसेवा का आन्दोलन विहिप भाजपा से ज्यादा इस मीडिया ने ही चलाया. इससे
पहले विहिप की ‘जनशक्ति’ का हाल यह था कि लोग उसके आयोजनों को कान ही
नहीं देते थे और उसे अयोध्या में लगनेवाले मेलों की भीड़ का इस्तेमाल करना
पड़ता था. (7) 1990 में इस मीडिया ने लोगों में खूब गुस्सा भड़काया कि
मुलायम सिंह यादव की सरकार ने अयोध्या के परिक्रमा और कार्तिक पूर्णिमा
के मेलों पर रोक लगा दी. मगर विहिप यों बरी कर दिया कि पूछा तक नहीं कि
क्यों उसने अपने संविधान व कानून विरोधी दुस्साहस के लिए इन मेलों का
वक्त ही बारम्बार चुना? (8) मुुख्यमंत्राी मुलायम सिंह यादव के इस बयान
का भी मीडिया ने जानबूझकर लोगों को भड़काने के लिए अनर्थकारी प्रचार किया
कि वे अदालती आदेश की अवज्ञा करके ‘बाबरी मस्जिद में परिन्दे को पर भी
नहीं मारने देंगे.’ जब 30 अक्टूबर 90 को कारसेवक मस्जिद के गुम्बदों पर
चढ़कर भगवा झंडा फहराने में सफल हो गये तो एक कार सेवक सम्पादक, (राजनाथ
सिंह, स्वतंत्रा भारत) आह्लादित होकर बोले ‘परिन्दा पर मार गया. परिन्दा
पर मार गया.’ (9) कई अखबारों ने जानबूझकर नवम्बर की फायरिंग में मृतकों
की संख्या बढ़ाकर छापने में एक दूजे से प्रतिद्वन्द्विता बरती. बाद में
गलत सिद्ध हुए तो मृतकों के फर्जी नाम पते भी छाप डाले. ऐसे लोगों को भी
फायरिंग में मरा हुआ बता दिया जो कभी अयोध्या गये नहीं और अभी भी जिन्दा
हैं. इनके लिए विहिप की प्रेस विज्ञप्तियाँ ही खबरें होती हैं जिसके बदले
में ये भाजपा द्वारा उपकृत होने की आशा रखते हैं. ऐसे कोई उपकृत चेहरे
राज्यसभा में भी दिखते हैं. (10) 1992 में जब कल्याण सिंह सरकार ने विहिप
और कारसेवकों को पूरी तरह अभय कर दिया कि उनके खिलाफ गोली नहीं चलायी
जायेगी तो उन्होंने सिर्फ बाबरी मस्जिद का ही ध्वंस नहीं किया. उन्होंने
23 अविवादित मस्जिदों को नुकसान पहुँचाया, कब्रें तोड़ीं और मुस्लमानों के
267 घर व दुकानें जला दीं. इतना ही नहीं, उन्होंने सत्राह लोगों की जानें
भी ले लीं. कजियाना मुहल्ले में एक बीमार मुस्लिम स्त्री को उन्होंने
उसकी रजाई समेत बाँधकर जला दिया और उसके उस विश्वास की भी रक्षा नहीं की
जो उसने उनमें जताया था. जब अन्य मुस्लमान अयोध्या से भाग रहे थे तो उसने
जाने से मना कर दिया और कहा था कि भला वे मुझको मारने क्यों आयेंगे. तब
कहर ऐसा बरपा हुआ था कि कोई छः हजार मुस्लमानों में से साढ़े चार हजार
अयोध्या छोड़कर भाग गये थे. अपवादों को छोड़कर किसी भी हिन्दी अखबार को
कारसेवकों के ये कुकृत्य नहीं दिखे . इनके लिए आज तक किसी को भी कोई सजा
नहीं मिली क्योंकि सरकार ने मुकदमा चलाने की ही जरूरत नहीं समझी. आज की
तारीख में कोई हिन्दी पत्राकार या अखबार इसे अपनी चिन्ताओं में शामिल
नहीं करता. (11) हिन्दी मीडिया इस मामले में मुस्लिमों को खलनायक बनाने
का एक भी मौका नहीं चूकता और इस तथ्य को कभी रेखांकित नहीं करता कि इस
विवाद के शुरू होने से लेकर अब तक मुस्लिम पक्ष की ओ से गैर कानूनी उपचार
की एक भी कोशिश नहीं की गयी है.

कई लोगों को उम्मीद थी कि छः दिसम्बर 1992 को कारसेवकों के हाथों अपने
कैमरे और हाथ पैर तुड़वा लेने के बाद ये पत्राकार खुद को थोड़ा बहुत अपराधी
महसूस करेंगे और आगे की रिपोर्टिंग में थोड़ा वस्तुनिष्ठ रवैया अपनायेंगे.
मगर अटल बिहारी वाजपेयी के राज में मार्च, 2002 में हुए विहिप के शिलादान
कार्यक्रम की रिपोर्टिंग ने इस उम्मीद को भी तोड़ दिया. विहिप भले ही इस
कार्यक्रम में 90-92 जैसी स्थितियाँ नहीं दोहरा सकी मगर मीडिया में 90-92
जैसी स्थिति पैदा ही हो गयी गयी. प्रामाणिक खबरें देने के बजाय यह मीडिया
फिर विहिप का काम आसान बनाने वाली कहानियाँ गढ़ने और प्रचारित प्रसारित
करने में एक दूजे से आगे बढ़ने के प्रयत्नों में लग गया. पत्राकारीय
मानदंडों को पहले जैसा ही रोंदते हुए. इस बार कारसेवक ‘रामसेवकों’ में
बदल गये थे. वे आने लगे तो रेलों में डिब्बों पर अनधिकृत रूप से कब्जा कर
यात्रियों को साम्प्रदायिक आधार पर तंग करने उनसे जबरिया जय श्रीराम के
नारे लगवाने और लगाने की स्थिति में मारपीटकर ट्रेन से नीचे फेंक देने
जैसी घटनाएं (जिनमें मौते भी हुईं) रुटीन हो गयीं. उन्होंने जगह-जगह
महिलाओं से बदलसलूकी भी की. लेकिन --
www.naipirhi.blogspot.com

--
Journalist’s Union for Civil Society (JUCS)
www.jucsindia.blogspot.com

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